दिल्ली: कांग्रेस की कार्यशैली में बदलाव की जरूरत: डॉ. समरेंद्र पाठक

  • डॉ.समरेन्द्र पाठक

वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक

नई दिल्ली। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अंदर नेतृत्व को लेकर आवाज उठाई गयी है, लेकिन यह भी सत्य है, कि नेहरू -गांधी के इत्तर कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है। मगर इन्हे कार्य शैली बदलने की सख्त जरुरत है।
कांग्रेस की स्थापना खासकर आजादी के बाद के कांग्रेस का इतिहास तो कम से कम यही बताता है। मगर पिछले तीन दशकों में फर्क सिर्फ यह आया है, कि रीढ़ विहीन नेताओं ने नेतृत्व को इस कदर घेर रखा है, कि वह इससे वाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं।
इन्ही कारणों से गांव-गांव में पसरा कांग्रेस का जुनूनी कार्यकर्त्ता या तो पाला बदल चुके हैं या फिर मूकदर्शक बने हैं।कथित बड़े नेताओं की स्थिति तो यह है, कि वे खुद भी चुनाव नहीं जीत पाते हैं।
नेहरू से इंदिरा गांधी के ज़वाने तक कांग्रेस में दूसरे दर्जे के ऐसे नेताओ की फौज थी, जिनकी क्षमता अपने बल बूते पर 8-10 सांसदों को जिताकर लाने की थी। लेकिन आज ऐसे लोगों का अभाव है, या वे अलग-थलग गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं।
ऐसे कद्दावर नेताओं में सरदार पटेल से लेकर के.कामराज, श्री कृष्ण सिंह, मोहनलाल सुखाड़िया,जानकी वल्लभ पटनायक, सिद्दार्थ शंकर रे, वसंत दादा पाटिल, ज्ञानी जैल सिंह, दरवारा सिंह, कमलापति त्रिपाठी, गनी खान चौधरी, शुक्ला बंधु, पी.वी.नरसिंह राव, नाथू राम मिर्धा, बंशी लाल, अर्जुन सिंह, डॉ.जगन्नाथ मिश्र, वीर बहादुरसिंह, ए.आर.अंतुले रेड्डी बंधुओं, शंकर सिंह बघेला आदि अनेकों नाम है। इन नेताओं की ताकत यह थी, कि वे थौक में सांसदों को जीता लेते थे।
दरअसल राजीव गांधी के ज़माने में कांग्रेस में दरबारियों का युग शुरू हुआ। वर्ष 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस को 415 का बहुमत मिलते ही श्री गांधी ऐसे नेताओं से घिरने लगे थे। वे इस कदर हावी हो गए थे, कि जनाधार वाले नेता नेतृत्व से दूर होते गए या फिर उन्हें किनारा कर दिया गया। कुछ नेता तो बगावती तेवर अपनाते हुए गैर कांग्रेसी मुहिम में शामिल हो गए। परिणाम यह हुआ, कि वर्ष1989 के आम चुनाव में कांग्रेस हार गयी। कांग्रेस को मात्र 192 सीटें मिल पायी थी।
श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री का 7 रेस कोर्स बंगला ख़ाली कर 10 जनपथ पहुंच गए, जिसमें उनके खास मंत्री प्रो.के.के.तिवारी रहा करते थे। शायद अब श्री गांधी को ऐहसास हो गया था, कि गलती कहां हुई? कुछ दिनों तक एकांत वास में रहने के वाद उन्होंने हर आम वो खास से मिलना शुरू किया।
श्री गांधी से मिलने वालों का तांता लगने लगा। सुरक्षा की जिम्मेदारी गुप्ता के जिम्मे थी। व्यवस्था का जिम्मा वी.जार्ज एवं माधवन संभालते थे। उस समय एम.जे.अकबर, भजन लाल, रामेस्वर निखड़ा, अजीत योगी, हरीश रावत आदि पार्टी अध्यक्ष के रोजमर्रा के काम को बखूबी निपटाने में लगे रहते थे।
इस दौरान केंद्र में सत्तारूढ़ वी.पी. सिंह की सरकार आरक्षण आंदोलन एवं देवी लाल के कोप की शिकार हो गयी। वी.पी. सिंह की सरकार मात्र 11 महीनें चली।तब तक राजीव गांघी दूसरी पारी खेलने के लिए तैयार हो चुके थे मगर चुनावी सभा के क्रम में हुए विस्फोट में उनका निधन हो गया।
अवसाद में डूबे नेहरू-गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी को नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हुए कांग्रेस की नुकसान की भरपाई के लिए आगे आना पड़ा।मगर वर्ष 2004 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के साथ ही फिर रीढ़ विहीन नेताओं की भीड़ लग गयी और कार्यकर्त्ता एवं जनाधार वाले लोग हासिये पर चले गए।
ताजा मामला कांग्रेस के 23 नेताओं से जुड़ा है, जिन्होंने नेतृत्व के समक्ष कुछ सवाल खड़े किये हैं। इन कद्दावर नेताओं के संबंध में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक “जनसत्ता” ने अपने ताजा अंक में “कांग्रेस के कागजी क्रन्तिकारी” शीर्षक से लेख छापा है,जो बहुत कुछ अपने आप में कह रहा है।
बहरहाल कांग्रेस नेतृत्व को ऐसे चाटुकारों से दूर रहने की सख्त जरुरत है।