अवसर की समता और जवाबदेही ही लोकतंत्र का मूल है -प्रताप चन्द्रा

December 24, 2017 vivekanand 0

लोकतंत्र मुक्ति आन्दोलन के तहत लखनऊ के विभिन्न इंटर कालेजों, डिग्री कालेजों और विश्वविद्यालयों में “लोकतंत्र की पाठशाला” लगानें की शुरुआत आज लखनऊ के गोमती […]

सरकार हमारा पैसा दिलवाएं- अनसतेसिया अकिमोवा

December 23, 2017 vivekanand 0

नईदिल्ली- यूक्रेन के व्यापारी को गुजरात के व्यापारी खोड़ाभाई नागाजी भाई रमानी ने व्यापारी के नाम पर ठगी किया है। जिसके बाद अब व्यापारी दर […]

स्वरोजगार योजना के नाम पर धड़ल्ले से हो रही है ऑटो परमिट ट्रेडिंग

December 23, 2017 vivekanand 0

दिल्ली सरकार के स्वरोजगार योजना में परिवहन विभाग में कमजोर नियमों के कारण ऑटो परमिट ट्रेडिंग किया जा रहा है। सरकार के परिवहन विभाग के […]

यमुना चैलेंज ट्रॉफी क्रिकेट प्रतियोगिता के 23वें दिन 4 मैदानों पर हुआ 7 मैचों का आयोजन

December 21, 2017 vivekanand 0

भाजपा दिल्ली प्रदेश द्वारा आयोजित यमुना चैलेंज ट्रॉफी क्रिकेट प्रतियोगिता के 23वें दिन दिल्ली के 4 मैदानों, साकेत खेल परिसर, तालकटोरा खेल परिसर, हरी नगर […]

हर बार नेपोटिस्म के आसपास आपत्तिजनक टिप्पणी बनाना जरूरी नहीं।

December 20, 2017 vivekanand 0

नेपोटिस्म’ तो जैसे साल का सबसे ख़ास शब्द हो चुका हो। यही नहीं, यह सबसे ज़्यादा चर्चित विषय बन कर रह गया है । लेकिन करण ओबेरॉय का मानना है कि एक बड़ेही बेतुके मुद्दे को बढ़ा-चढ़कर पेश किया गया है। करण ओबेरॉय आजकल अपनी ‘बैंड ऑफ़ बॉय्स’ की वापसी को लेकर काफी व्यस्त हैं। उन्होंने बड़े ही सरल शब्दों में  नेपोटिस्म के अर्थ को स्पष्ट करते हुए बोला कि ‘अपनेबाप-दादा के शिल्प का हिस्सा बनने का यह एक काफीस्वाभाविक आकर्षण है ।’ इसी विषय को विस्तारित करते हुए उन्होंने कुछ पेशों को लेकर एक एहम सवाल उठाया जहाँ नेपोटिस्म की बात नहीं उठती । ‘क्या एक वकील का बेटा वकील नहीं बननाचाहता? क्या एक राजनेता का बेटा राजनीती में शामिल नहीं होना चाहता? क्याएक व्यापारी का बेटा नहीं चाहता कि वह अपने पिता का कारोबार भविष्य में संभाले? क्याहमने कभी पूछा है कि क्यों मुकेश अम्बानी के बेटे उनके पिता के कारोबार की बागडोर सँभालने की उम्मीद करते हैं? क्या इसमें कोई अजीब बात लगती है?’ ‘जब किसीके बचपन के माहौल में किसी एक ओर झुकाव रहा हो, तो आगे जाकर उसका हिस्सा बनने की चाह होना बड़ा ही साधारण मामला होता है । मेरे पिता फौजी थेइसलिए मैं भी फौजी बनना चाहता था । क्या मेरे पिताजी के बोलने से मेरा ऐन.डी.ए में दाखिल होना आसान हो जाता, या मेरे परिवार का फौजी वातावरण होने से मेरीगिनती पसंदीदा कैडेटों में होती? शायद होती, क्योंकि यह स्वाभाविक और अनिवार्य भी है । दुनिया इसी तरह चलती है। फ़िल्मी जगत की तरफ उंगली उठानाबहुत आसानहै क्योंकि यहाँ हर चीज़ की लगातार छान-बीन होती रहती है।’ अगर आप मानते ही हैं कि माँ-बाप के इंडस्ट्री से जुड़े होने के करण उनके बच्चों का पहली बार परदे पर नज़र आना ज़्यादा आसान होता है, तो आप नेपोटिस्म की मौजूदगीकी क्या सफाई देंगें?’ करण यह भी कहते हैं कि ‘हाँ, यह ज़रूर कह सकते हैं कि मौका पाना आसान हो जाता है, लेकिन आखिरकार दर्शक का उन्हें स्वीकारना या रद्द करना केवल उनके गुण औरक्षमता पर निर्भर होती है । इसकी कई मिसालें चारों ओर देखने को मिलती हैं। हर मुद्दे को ज़ोरो-शोरो से प्रस्तुत करने का ज़िम्मेदार मीडिया को ठहराते हुए करण बोलें कि ‘फ़िल्मी सितारों के बच्चों को लेकर मीडिया के हमेशा से आते हुए जुनून केचलते इस तरह के अनुमान लगते हैं । अगर मीडिया इन्हें लेकर इस हद्द तक चर्चा नाकरती, तो क्या मुझे शाह रुख ख़ान या श्रीदेवी के बच्चों के नाम पता होते?’ मुझे तो इत्तेफाक से इंडस्ट्री के एक नन्हे से बच्चे का नाम भी नाम पता है क्योंकि वो सैफ और करीना की औलाद है । सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री को ही बेवजह दोषी करार क्यों दिया जाए? मीडिया खुद ही इन बच्चों को फ़िल्मी बच्चे बनाने में इतना वक्त, पैसा और जोश खर्च कर रही है ।

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December 19, 2017 vivekanand 0

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December 19, 2017 vivekanand 0

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December 18, 2017 vivekanand 0

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December 18, 2017 vivekanand 0

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December 17, 2017 vivekanand 0

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